DDLJ से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी. शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे (हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे. एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया–‘फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में DDLJ की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था. यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था. मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.
फिल्म शुरू हुई तो काजोल की किस्मत से रश्क होने लगा…सिर्फ सहेलियों के साथ लम्बे टूर पर जाना. साथ-साथ मेरी कल्पना के घोडे भी दौड़ने लगे,काश!हमें भी ऐसा मौका मिला होता तो कितना मजा आता. शाहरुख़ खान के राज़ का किरदार तो जैसे दिल मानने को तैयार नहीं–‘ऐसे लड़के भी होते हैं? एक अजनबी लड़की का इतना ख्याल रखना …आरामदायक कमरा छोड़ इतनी ठंड में बाहर सोना..और उस पर से होंठ सी कर उसकी इक्तनी सारी डांट सुनना …….ना,ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में ही हो सकता है’.पर जब उनका टूर ख़तम हो गया तो उनके बीच जन्म लेते नए कोमल अहसास बिलकुल सच से लगे. ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम….”इस गीत के पिक्चाराइजेशन ने भी इस अहसास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. कम ही रोमांटिक गीतों की पिक्ज़राइज्शन अच्छी लगती है..पर इसकी अच्छी लगी..
DDLJ के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था. फिल्म की तरह गाना बजाना तो उन दिनों नहीं होता था. पर ‘राज’ की तरह ही वह जब मौका मिलता बच्चों से घिरा रहता और जहाँ कोई मामा,चाचा,दिख जाते कहता–“बच्चों, बोलो मामा की जय’. बच्चे भी गला फाड़ कर चिल्लाते. फिर वह मामा,चाचा से कहता,”पैसे निकालिए ,ये इतनी जयजयकार कर रहें हैं.” वे लोग भी हंसते-हंसते सौ पचास रुपये पकडा देते और वह मुझे थमा देता,’जमा करो,सब मिलकर चाट खाने जायेंगे या सबके लिए चॉकलेट लाया जाएगा.”
अमरीश पुरी की तर्ज़ पर कई बड़े-बूढे उसे यूँ काम करता देख, ऐनक उठा,सीधे ही पूछ लेते.”तुम किसके बेटे हो?”और वह मुझे इंगित कर कहता,”मैं इनका छोटा भाई हूँ”..क्या परिचय देता कि मैं लड़की की चाची की बहन के देवर का बेटा हूँ.
शादी के दूसरे दिन, सुबह जब दूल्हा शेव कर तैयार होने लगा तो विवेक पहुँच गया,”अरे आप दूल्हा हैं,खुद शेव करेंगे?..लाइए मैं शेव कर देता हूँ.” और शेव करने के बाद बोला,”अब नेग निकालिए” लड़के ने भी मुस्कुराते हुए कुछ नोट पकडा दिए जो मेरे पास जमा हो गए. इस बार आइसक्रीम खाने के लिए.
मेरे चाचा दिखने में तो अमरीश पुरी की तरह रौबदार नहीं थे पर उनके बच्चों के साथ साथ हमलोग भी उनसे बहुत डरते थे. उस पर से जब बाराती छत पर पंगत में खाना खाने बैठे तो विवेक ने उनकी चप्पलें छुपा दीं. जब चप्पलें ढूंढी जाने लगी तो चाचा की क्रोधाग्नि में भस्म होने का हम सबको पूरा अंदेशा था. हमने विवेक को आगे कर दिया, “तुम्हारा आइडिया था,तुम भुगतो” और वह चाचा से बहस करता रहा,’इनलोगों ने जनवासे में हमें कितना परेशान किया है…समोसे गरम नहीं हैं…थम्स-अप ठंढा नहीं है.,…आइसक्रीम पिघली हुई है…इन्हें भी थोड़ा परेशान होने दीजिये ” पूरी शादी में पहली बार चाचा के चेहरे पर मुस्कान दिखी और उन्होंने विवेक को मनाया,चप्पलें वापस करने को.
विदा होते समय रूबी जोर-जोर से रो रही थी. भाई शायद पूरे साल बहन से झगड़ता हो,पर विदाई के समय बहन को रोते देख उसका दिल दो टूक हो जाता है, भैया ने विवेक को बोला,’तुम कार में साथ में बैठ जाओ,रास्ते में जरा उसे हंसाते हुए जाना.”
फिर बरसों बाद विवेक से मिलना हुआ. मेरे मन में उसकी वही शरारती छवि विद्यमान थी.पर १२वीं में पढने वाला वह लड़का, अब धीर गंभीर बैंक ऑफिसर बन चुका था,शादी भी हो गयी थी. बड़े अदब से मिला…मैंने पति से परिचय करवाया.”ये विवेक है”(पर दूसरी पंक्ति कि ‘जिसकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई’ कहते कहते रुक गयी.)
विवेक के ज़रिये आपने राज को कितनी खूबसूरती से पेश किया है रश्मि जी.सच आपका लेखन हमेशा दिलचस्प होता है..दीपावली त्यौहार श्रृंखला की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
थोडी सी फुर्सत मिली तो इतनी अच्छी यादें ताजी हो गयी .. हमसे बांटने का शुक्रिया !!
'ऐसे लड़के भी होते हैं' – कह कर आपने दिल तोड़ दिया 😛
@अभिषेक'ऐसे लड़के भी होते हैं' – कह कर आपने दिल तोड़ दियायानि कि ऐसे लड़के होते हैं…और उनका नाम होता है…'राज'.. या..या.. शायद…अभिषेक :):)
नहीं, अभिषेक बहुत कॉमन नाम है.वैसे आप जिस अभिषेक की बात कर रही हैं… वो तो ऐसे लडको की कटेगरी से बेहतर वाले कटेगरी में आता है 🙂 🙂
सच आप को पढ़ने में बहुत मज़ा आता है आदि से अंत तक कहीं पाठक ऊबता नहीं बल्कि उसी में रम जाता है बहुत बहुत बधाई
आपकी समीक्षा आज भी सामयिक है।
बहुत सारी बाते आ गयी एक ही पोस्ट में, अब सोच में हूँ कि किस-किस पर कमेण्ट करूं? आज के कुछ साल पहले तक विवाह में एक अलग प्रकार का आनन्द होता था। सब मिलकर काम करते थे तो ऐसे विवेक हर शादी में मिल जाते थे। अब तो शादी केवल पैसे का खेल रह गयी है तो काम कुछ नहीं, बस खाना खाओं और अपने कमरे में जा पड़ो। आप उस विवेक को भी टटोलना, वह अभी भी मन से बदला नहीं होगा। क्योंकि आदते तो फिर भी बदल सकती हैं लेकिन आपकी प्रकृति वहीं रहती है। आनन्द आया पोस्ट पढकर।
विवेक के जैसे हाथ बंटाऊ लड़के अब इस डर से भी शादी ब्याह में नहीं जाते कि कहीं लोग कुछ उटपटांग न समझ लें 🙂 DDLJ तो मुझे भी देखनी है, परदे पर। देखता हूं कब मौका लगता है । सुबह के समय सुना है एक शो चलता है वहां और इसी वजह से इतने साल खिंच ले गये हैं। बढ़िया संस्मरण रहा।
यदि अंतिम पंक्तिया नहीं होती तो इस समीक्षा का कोई मतलब नहीं होता… अंतिम पंक्तियों में हम खुद को भी पाते हैं….
DDLJ के सहारे आपने दिल को छू लेने वाला संस्मरण साझा किया। बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर।मैने भी कई बार देखी है यह फिल्म।
बिलकुल सही समय पर आई थी ये फिल्म ..एक एक पल अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा लगता था ..राज का फ़ुटबाल खेलना या बारिश में भीगना दोनों बाहें फैलाकर सिमरन की तरफ देखना कसम से …मन करता था सिमरन को धक्का देकर हम दौड़ जाए ….इतने साल बाद दिल में वही गुदगुदी हो गई सोच कर
पुनर्पोस्ट मजेदार है …..
संस्मरण बहुत सुन्दर है ।लेकिन DDLJ में पंजाब की संस्कृति दिखाई गई है जो बाकि लोगों में देखने को नहीं मिलती । विशेषकर हरियाणा में जहाँ लड़कों का महिलाओं में घुसे रहना कतई बर्दास्त नहीं किया जाता । इसीलिए मुझे मध्यांतर के बाद फिल्म असहज सी लगी थी ।लेकिन कुछ भी हो , एन्जॉय तो खूब किया ।
रोचक एवं हर्षवर्धक संस्मरण ! दीपावली, नव वर्ष तथा भाई दूज की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें !
यादें ताज़ा करती पोस्ट …कमाल का राज का किरदार और आपकी समीक्षा…
मुझे याद आ रहा है कि मैंने इस फिल्म को नापसंदगी की बात लिखी तो अजय जी ने मुझे भी इसकी समीक्षा लिखने को कह दिया , यह कहते हुए कि इस फिल्म को किसी ने नापसंद भी किया :)आज जाकर थोड़ी फुर्सत मिली !
अपनी भी हाज़िरी लगा लीजियेगा 🙂
राज अब जी-वन बन गया है…जय हिंद…
@अब तक इस फिल्म का शो चल रहा हैइस बारे में मेरे विचार बिलकुल आपक पोस्ट में दिए विचारों से मेल खाते हैं :)विवेक के बारे में जानकर अच्छा लगा , नेचर से ही कोई ऐसा हो तो अच्छा लगता है |अब दोबारा इस फिल्म की बात :बोलीवुड में श्रृद्धा कुछ कम ही है अपनी, इसलिए रिलीज होने के बहुत समय बाद जब इस फिल्म को देखा तो पाया की फिल्म रिलीज होने से लेकर मेरे देखने के बीच शादियों , स्कूलों , और अन्य जगहों पर हम उम्र मित्रों के आदतों, व्यवहार और बोडी लेंग्वेज में जो गजब का बदलाव था वो इसी फिल्म की देन था |
विवेक और राज जैसे कई चरित्र आस पास होते अहिं पर हर कोई उन्हें जीवन के साथ जोड़ कर देख नहीं पाता .. जोड़ता है तो लिख नहीं पाता … आपने बाखूबी इसको अंजाम दिया है … दिवाली की मंगल कामनाएं …
आभार यादें ताजा कराने के लिए…दीपोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएँ.
यादें यादें यादें\ बहुत बढिया।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
पहले भी पढ़ा था इस पोस्ट को चवन्नी चाप पर,लेकिन फिर पढ़ने में मज़ा आया !!
बहुत अच्छा किया आपने इसे फिर से पोस्ट कर के…एकदम जबरदस्त पोस्ट!!ये अच्छा लिखा है -अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में अपने उसी रूप में जिंदा है वरना सोलह साल बाद उसके हाथ में भी 'माऊथ ऑर्गन'की जगह एक लैपटॉप होता और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह होता चिंताओं का रेखाजाल.:D 😀
वाह आपकी तो जितनी तारीफ कि जाय कम है 🙂 मुझे आपकी भाषा शैली काफी पसंद आई और आपका यह आलेख बहुत अपना सा लगा बहुत ही दिल से लिखा है आपने यह लेख। मुझे भी DDLJ बहुत पसंद है और आपके अनुभव मेरे अनुभव से काफी मिले हैं जैसा कि आपने लिखा है काजोल कि शादी से पहले वाली बातें जो आपने लिखी वो सौफ़्फ़ी सदी सही लगीं मैं उन दीनों 10th या 11th में थी जब यह फिल्म आई थी। बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने कभी समय मिले तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
आपका ब्लॉग भी बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक लगा । अभिव्यक्ति भी मन को छू गई । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद . ।